top of page

युग दृष्टा श्री कृष्ण

वेदों में कुछ श्लोक ऐसे हैं जो अवतारवाद की अवधारणा को इंगित करते हैं ,पर अवतारवाद के सिद्धांतों का स्पष्ट और निश्चयात्मक उल्लेख सबसे पहले श्रीमद भगवद गीता में समझाया गया है मानवरूप में भगवान के अवतार के माध्यम से भगवान कृष्ण के रूप में हम परमात्मा के परिचय के बारे में थोड़ा सा विचार करें। भगवान और आम आदमी के जन्म, दोनों के बीच अंतर क्या है इस बात को हम यंहा समझने का प्रयास करेंगे ?


मनुष्य का जन्म, 'जन्म ' है , और भगवान के जन्म को अवतार कहा जाता है । किसी अन्य लोक से पृथ्वी पर 'अवतरण ' को अवतार कहते हैं। भगवान अपने आप में पूर्ण, एक स्थिर स्थिति में, निरंजन , निराकार हैं। वे पृथ्वी पर ऋतुओं की स्थापना के लिए, सत्य के उत्थान के लिए अवतार लेते है स्वयं भगवान ने गीता में कहा है कि .....

" यदा यदा ही धर्मसय, ग्लानिभवँति भारत | अभयुतथाधमँसय तदाङङतमांन सृजामयहम" यानी जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का जोर बढ़ जाता है तब भगवान स्वेच्छा से अवतार लेते हैं । भगवान कृष्ण के जन्म और आम आदमी के बीच का अंतर यह है कि मनुष्य कर्म बन्धन से पैदा होता है और भगवान स्वेच्छा से , ऋतुओं की स्थापना के लिए , लोगों के कल्याण के लिए अवतार लेते हैं । भगवान कृष्ण का जन्म आज तक के भगवान के अवतार में अभूतपूर्व है । इसीलिए कृष्णावतार को पूर्णावतार कहा जाता है । कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम कहा जाता है , क्योंकि उनके जीवन में जन्म से लेकर शरीर के त्याग तक जो दिव्यता थी , जो प्रभुत्व प्रकट हुआ है, वह किसी अन्य किसी भी भगवान के मानव रूप में अवतार में नहीं हुआ है । उसके एक एक रूप में जन्म से प्रस्थान तक , निर्वाण तक , एक गौरवशाली संदेश हैं ,कि हमें कैसे जीवन जीना चाहिए । उसके लिए उन्हें युगद्रष्टा कहा गया है । भगवान कृष्ण का जन्म कारागृह में हुआ, ये क्या बताता है ? भगवान का जन्म जन्माष्टमी दिन को हुआ था । तो जन्माष्टमी क्या बताती है ? उनका जन्म स्थान और दिन, दोनों का कुछ संकेत हैं। हर इंसान खुद के बनाये हुए कर्म के कारागार में पैदा होता है, कर्म बंधन में से कैसे मुक्ति मिले वो समझाने के लिए ही भगवान कारागार में जन्म लेते हैं। और उसकी दिव्यता का एक एक अनुभव हर चीज में दिखाया गया है। कारागार में जन्म से कैसे मुक्त हो सकते है? । यदि हम भगवान कृष्ण का स्मरण करते हैं और साथ में हमें उनके जीवन का अनुसरण कर वैसा जीवन भी जीना चाहिए, इस बात को याद रखें। सच्चाई , मौसम , खुशी इन सब बातों का जब हम अनुसरण करते हैं - तब भगवान हमारे अंदर जन्म लेते हैं और हमें मुक्ति देते हैं । भगवान के जेल में जन्म लेने के बाद , वासुदेव उन्हें ले जाते हैं । यमुना नदी उफान पर थी , मूशलधार बारिश हो रही थी, लेकिन जैसे ही भगवान के चरण की अंगुली नदी को छूती है, नदी शांत हो जाती है । यह क्या दिखाता है ? असामान्य प्रवाह जारी है । शब्द , स्पर्श , रूप , रुचि , गंध - एक भयानक जबर्दस्त प्रवाह हमें खींचता है । कहीं किसी, रूप को देख लुभा गए - जहां प्रशंसा सुनीं - वंहा फूले नहीं समाये, जब निंदा सुनी-तो नाराज हो गए । शब्द , स्पर्श, रुप, रुचि, गंध- जैसे प्रवाह जारी हैं । प्रवाह बड़ा है ,प्रचंड है ; लेकिन भगवान के चरण स्पर्श से ये प्रवाह शांत हो जाता है । अगर आप स्मरण करते हैं, तो यह अनुभूति आपको भी होगी।

कंस के राज्य में उसकी राजधानी से समीप एक आनंदधाम जिसको वृंदावन धाम, का होना यह कितनी बड़ी बात है ! जो कंस चक्रवर्ती था, सम्राट था, जिसकी सत्ता थी उसकी इस धाम में कुछ चलती नहीं थी और ये धाम हृदय- दिल में हैं मेरा हृदय वृन्दावन है हे भगवान ! आप मेरे अधम स्वभाव को रोकिए, इसे मंद कीजिए और मुझे वृंदावन ले जाइए वृंदावन की बाल लीला में स्मृति रहस्य ,वेद रहस्य, भक्ति रहस्य से भरपुर है। नंद का घर आनंदमय है, जंहा कंस और उसके विनाश को नष्ट करने के लिए दूत है । नंद आनंद के प्रतिनिधि हैं जहाँ राक्षसी और विनाशी उपद्रव होते है उस उपद्रव को श्री कृष्ण ने नष्ट कर दिया है । ऐसी अनेक कहानियां हैं जैसे शकटासुर, तृणावर्त का वध, कालिया मर्दन (नागदमन) , दहिममंथन , दावानळ पान,आदि ……

जैसे कि शकाटसुरा की कहानी - कैसे शकटासुर एक गाड़ी के रूप में भगवान के ऊपर गिरता है और कृष्णा के पैर लगते ही वह गाड़ी रूपी शकटासुर आसमान में उडता हुआ जमीन पर गिरता है यह क्या दिखाता है ? हमारे शरीर भी शकट है पांच इंद्रियों और छठवें मन के नीचे , दब गया है। लेकिन उसको उभारे कैसे जाये ? हमारे भगवद-रूप, चैतन्यरूप, हमारे कृष्ण स्वरूप ही इस शकटसूर को मार सकते हैं हम इसके भार के नीचे रह रहे हैं, उनकी कृपा से ही निर्भार बन सकते और मुक्त हो सकते हैं


इसी तरह से तृणावर्त का भी वध होता है। क्या बवंडर एक राक्षस है ? हाँ, हमारे मन में चिंतायें, समस्यायें , क्रोध, इच्छायें बवंडर जैसी घूमती हैं जिसे भगवान कृष्ण ने मार दिया है


दावानळ पान : सांसारिक दावानळ जल रहा है प्रभु उस दावानळ को पी जाते है । इस प्रकार गोप बच्चों के साथ भगवान ने लीला की है, प्रकृति को वश में कैसे करना, प्रकृति के स्वामी कैसे बनना वो समझाया है । कृष्ण को दामोदर क्यों कहा जाता है ? एक बार कृष्ण शरारत कर रहे थे। इस पर यशोदा माता उन्हें रस्सी से बांधने जाती हैं कृष्ण बंधने को तैयार हो जाते हैं , लेकिन सभी रस्सियां कम पड जाती हैं लेकिन उन्हें कौन बांध सकता है ? जो स्वयं खुले हैं , वह केवल एक प्रेम है जो उन्हें अपने बंधन में बांध सकता है । कितनी बड़ी बात भगवान ने कही है ! बालक कृष्ण, जब माँ को देखते हैं कि माता थक चुकी है , हार गयी है , जब उन्हें यह यकीन हो जाता है वे अपने आप स्वेच्छा से बंध जाते हैं

” यानी भगवान प्रेम के धागों से बंध जाते हैं " - दयाराम प्रभु खुद प्रेम तंतु से स्वयं संलग्न हो जाते हैं कहते हैं वृंदावन में की प्रभु लीला जानने के लिए, बहुत बुद्धिमानी का काम नहीं,, योगियों का काम नहीं हैं, यह प्रेमी भक्तों का काम हैं। लेकिन ‘ माँ ’ को प्यार सिखाना नहीं पड़ता। प्रेम का साम्राज्य विस्तृत है परमेश्वर प्रेम साम्राज्य में स्वयं प्रगट होते हैं । वह अवतार लेते है, लीला करते है , मानव रूप में आते है और मानव बन जाते है और मनुष्य को मानव धर्म से परे ले जाते हैं


नागदमन (कालिया मर्दन ) की बात - अहंकारी नाग , विषमय सर्प , हमारे दिल में, मुख्य धारा में बैठ गया है ? उसे कैसे वश में करें ? बाल कृष्ण नाग के उपर नृत्य करते है । मौत के सिर पर जीवन का संगीत बज रहा है हमे तो मृत्यु का भय हैं डर लगता है , विपत्तियों का डर लगता है लेकिन श्री कृष्ण भय के स्वामी हैं भगवान अपनी जीवन लीलाओ से हमें मृत्युंजय कैसे होना, सिखाते हैं इसके अलावा कारागार में से मुक्त कैसे होने की शिक्षा देते है अगली बात यह है कि जन्माष्टमी का जन्म? क्या संकेत देता है ? हाँ ; आठवाँ स्थान अपरा प्रकृति का है पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश - ये पांच स्थान और मन , बुद्धि , अहंकार , आठ यह अपरा प्रकृति हैं अष्टमी , अष्टधा प्रकृति प्रदर्शित करती है । इस दुनिया में सभी आठ प्रकृति में है । वे मालिक हैं और हमें अष्टधा प्रकृति में से बाहर निकालते हैं । जन्म कुंडली में आठवें स्थान को मृत्यु का स्थान माना जाता है। हम कारागार में हैं,लेकिन हमें मुक्ति का रास्ता मिलता नहीं क्योंकि हमारा अनुसंधान नहीं है। भगवान कृष्ण का चिंतन, वंदन, स्मरण हम भाव से, अंतरतम आत्मा से, याद करेंगे तो हमारे शरीर में भगवान अवश्य प्रकट होंगे।

दही मंथन की बात -वास्तव में भगवान ने कहीं पे भी दूध गिराया नहीं हैं , तो कहीं पे दूध की चोरी नहीं की हैं। दहीं ही क्यों ? क्योंकि दहीं मन की मध्य अवस्था है दूध में मिलाने पर दही जम जाती है । टांगी हुई मटकी में दही की तरह ही , मन की मध्य अवस्था है ।अपना मन सामान्य है उस वजह से हम व्यथित हो जाते हैं। सुख में हम अहंकार से फूल जाते है । क्योंकि अपना मन स्थिर नहीं है। जिस तरह दूध मटकी में जब दहीं बन कर जम जाता है तो उसमें स्थिरता आ जाती है। जब तक वह दूध होता है बर्तन के हिलने के साथ साथ हिलता है लेकिन दही बन जाने पर वह स्थिर हो जाता है। उसी प्रकार से हर कार्य के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। व्यवहार में भी एकाग्रता आवश्यक है। लेन-देन के गुणों और परमार्थ के गुणों अलग अलग हैं ऐसा नहीं है। व्यवहार शुद्ध होना जरूरी है ,क्योंकि उसी का नाम परमार्थ है। कोइ भी व्यवहार क्यों न हो, उसका श्रेय - यश अप यश , आपकी एकाग्रता पर निर्भर करता है। व्यापार , व्यवहार , राजनीति , कूटनीति इसे किसी भी संदर्भ में कहीं भी ले लो , सब की सफलता मनुष्यों के मन की एकाग्रता पर निर्भर करती है हम पूरे दिन भाग दौड़ करते रहते हैं कि हमारा दिन अच्छा जाए। पर हमें जो दिन भर की भागदौड़ हमारे मृत्यु के दिन को अच्छा हो उसके लिए करनी है। पूरी जिंदगी हम कड़े जहर पचा लेते हैं , क्योंकि हमारी अंतिम घडी एक पवित्र मौत हो । हम हर दिन के सभी कर्म पवित्र भावना के साथ करेंगे तो ही रात की प्रार्थना मधुर होगी। यदि अंतिम दिन अच्छा जाए तब ही सभी कर्म सफल रहे हैं। केवल तब वहाँ मन की एकाग्रता होगी। एकाग्रता के लिए मन और जीवन की शुद्धता आवश्यक है। मन की स्थिरता है , मन की एकाग्रता है। मन की मध्य स्थिति है और तब चित ऐकाकार होकर, संयोग- देह भाव तोडेगा सबसे पहले, हमारे मन में यह करने के लिए, हमें दहीं की तरह जमना होगा तो गोविंद जरूर आयेंगे। लेकिन जब दही जमा होगा तभी । दही कब जमेगा ? मन कब स्थिर या एकाग्र होता है ? स्मरण से होता है नित्य स्मरण करते चलो , हम पूजा करते हैं , आह्वान करते हैं , आनंदित होते हैं पर इसका प्रभाव तब होता है जब मन स्थिर हो जाता है "प्रभू के लोग मुक्ति नहीं चाहते हैं मागे जनमोजनम अवतार रे नित दर्शन, नित ओछव कीर्तन निरखवा नंदकुमार रे "……… .- नरसिंह मेहता

हम कारागार में रहते हैं तब तक हम कंस के गुलाम है । पर जब कारागार के दरवाजे तोड़ने वाला हमारे जीवन में प्रवेश करेगा तब हमे कंस का डर, मौत का डर, दूर हो जाएगा फिर हम आनंद के वृंदावन धाम में प्रवेश करेंगे। चित को स्थिर करने के लिए, दही की मटकी होनी चाहिए दूध को जमाना पड़ता है वो है प्रभू स्मरण । हम दूध को कुछ समय के लिए एक स्थान पर छोड़ देते हैं। भगवान कृष्ण के नाम को इतने शांतिपूर्ण तरीके से स्मरण या जपना होता है, और परमात्मा हमारे जीवन में, हमारे मन में, हमारे पूरे अस्तित्व में प्रकट होते है।

इसी तरह, भगवान कृष्ण ने गीता में, कर्म की बात की है - हे अर्जुन , कर्म के बिना व्यक्ति अकर्मी नहीं हो सकता है , कर्म के बिना ज्ञान आता ही नहीं। अगर आदमी सब कुछ छोड़ कर बैठ जाता है तो क्या वो सिद्ध पुरुष नहीं कहलाता है। हम देखते हैं कि , हर कोई व्यक्ति कुछ न कुछ काम करता है, क्योंकि वो उसका स्वभाव है । व्यक्ति एक भी क्षण कर्म के बिना नहीं रह सकता । दुनिया की ऐसी व्यवस्था है कि आदमी के हाथ और पैर होने के बावजूद भी बैठा रहेगा तो भी मन में और दिमाग में कहीं न कंही किसी प्रकार के विचार रहते हैं। ऐसे बैठे रहने वाले लोग मिथ्याचारी और मूर्ख कहलाते हैं । इससे अच्छा अपनी इंद्रियों को वश में रख राग-द्वेष छोड, बिना आशंकित और , अनासक्त रह कर कर्म करे और कर्म योग करे। आपके भाग्य में आया हुआ सेवा कार्य, इंद्रियों को वश में रखकर किया करें। पर जब भी कर्म करें तब यज्ञ कार्य करना मतलब दूसरों के लिये, परोपकारी श्रम- सेवा. परोपकारी सेवा जिसमें आसक्ति, राग-द्वेष न हो। ऐसा यज्ञ तू किया कर। जो मनुष्य अंतर शांति प्राप्त करता है वो संतुष्ट रहेगा, वो बिना स्वार्थ यज्ञ-कर्म करता रहेगा। अर्जुन तू कर्तव्य कर्म करता रह ।श्री कृष्ण कहते हैं कि मुझे देख, मेरे कार्य में कौन सा स्वार्थ है? मैं 24 घंटे बिना रुके कर्म करता रहता हुं जिससे लोग भी थोडा बहुत काम कर लेते है, अब मैं आलसी बन जाऊं तो लोगों का क्या होगा? यदि सूर्य , चंद्रमा , तारे आदि स्थिर हो जाएँ , तो दुनिया को नष्ट हो जाएगी, मैं उन सभी को गति में रखता हूँ ? लेकिन लोगों और मुझमें इतना फर्क है : मुझे आसक्ति नहीं ; लोग आसक्त हैं , स्वार्थ के वश में रहकर श्रम करते है तूझे आसक्ति छोड कर कर्तव्य करना हैं ताकि लोगों कर्म भ्रष्ट न हो कर धीरे धीरे अनासक्त होंगे । इसीलिए कर्मयोगी सामान्य दिखते हैं भले ही वे आम आदमी से अलग होते हैं ।हालांकि, रिश्तेदार के खिलाफ लड़ाई लडनी है वो अर्जुन का दर्द था। मैं यह काम नहीं करु तो, मुझे नहीं पता ? हम अपने रिश्तेदारों को मार कर कैसे खुश रह सकते हैं? अर्जुन ने कृष्ण से कहा - ;मैं युद्ध नहीं करूँगा और रथ में बैठ जाता है। सभी बातें करने के बाद,श्री कृष्ण अर्जुन को आखरी फैसला सुनाते हैं - तू कहता हैं कि , लड़ाई नहीं करुगां, लेकिन आप लड़ाई लडोगे ही कय़ोंकि लडना आपका स्वभाव है । पूरी जिंदगी आप लडे ही हो । यहाँ नहीं लड़ोगे तो कहीं और जाकर लड़ाई करोगे । यदि ये आपके रिश्तेदार हैं इस कारण से नहीं लड़ोगे तो आप किसी अन्य कारण से भी लड़ाई लड़ेंगे तो क्यों नहीं यंहा लड़ना ? आप अपने स्वभाव से बंधे हुए हैं प्रकृति आपको खींच ले जाएगी आप लड़ते हैं , आपको वही करना है जो आपको करना है मैंने सब कुछ तय कर लिया है। तुम सिर्फ एक निमित्त मात्र हो। हे मनुष्य , जो अनासक्ति के साथ कर्म करता है । ईश्वर उसका साक्षात्कार करता है।

मुझ आध्यात्म ज्यादा पता नहीं है, लेकिन मैं मेरी समझ को संक्षेप में प्रस्तुत कर रही हूँ। आपके यह स्वीकार है इसके लिए मैं आपकी आभारी हूँ।

ReplyForward

Yorumlar


bottom of page